हे ईश्वर कौन हो तुम !!
नीळकंठ महादेव तुमहि हो
अष्टभुजा नारायणी तुम हो
अनंत ब्रम्हांड धारक तुम हो
अगणित तारेग्रह तेज तुमही हो
न गिनती कितनी सांसो मे
बसे प्राण का कण तुमही हो
महाप्रवर्तक, महाशक्ती तुम
पृथ्वी पर की प्रभा तुमही हो
अवकाश गोल पाताल गहिरा
नाद प्रकाश लहरी सब तुम हो
न ऐसी वस्तू सजीव निर्जीव
जहाँ न तुम हो, कहां न तुम हो
अमृत तुम और विष तुमही हो
सजा संवरा रूप भी तुम हो
कुरूपता मे आलोकित तुम हो
साक्षात विलोकित तेज तुमही हो
मेरे मन को आकृष्ट करे जो
ऐसां माया पती तो तुम हो
माया से भी पार जो हो तुम
मुठ्ठीमे भर आदिशक्ती तुम हो
हो अलौकिक, हो प्रकाशित
सबका अस्तित्व हो पंचमहाभूत
धरा अधरा आधार धरोहर हो
भास आभास विभास भी तुम हो
मन मेरा जब जो करे कल्पना
उसके भी तो पार तुमही हो
त्रिखंड, त्रीलोक, त्रिदेव त्रिमिती
इन के भी तो पार तुमही हो
ध्वजा सनातन ध्वजा केसरी
ध्वजा विराजे ध्वजा तेजमय
सारी ध्वजायें धरे तुमही हो
मंगल पावन भरत खंड का
साक्षात्कारी विस्मय तुमही हो
नतमस्तक हर आविष्कार पे
नतमस्तक मै हर राग रंग पे
नतमस्तक निर्गुण स्वरूप पे
नतमस्तक मैं श्रीरामनाम पे
ऐसी देखी जो भी करनी
हर करनी पे नतमस्तक मैं
जानता नही सही स्वरूप मैं
पर जो भी सोचूं सब तुमही हो
पर जो भी सोचूं सब तुमही हो
©® कवी: प्रसन्न आठवले
शब्द : शब्द ब्रम्हा के
२५/०७/२०२३
०८:१४
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