भोर का विभोर है प्रभात का समय धरा
सुनहरी परख ओढ़कर सज रही वसुंधरा
लालिमा ललाटपर पूरब दिशा की मांग में
हरेक कण खिला खिला गगन पवन के संग में
ये पक्षी है आवाज दे सजा निसर्ग बोलते
फूलों में है बसे हुवे पराग भी है डोलते
ये रागदारी गा रही है छेड़कर ये बासुरी
शाम भी सुबह सुबह बुला रहा है सांवरी
अनेक जीव जग पड़े विशाल चादरे निकल
सूना रहे है गान ये समय तेरा चला निकल
हवा भी अब सूना रही है रागिनी प्रभात की
खिले खिले कमल भी है संगिनी है पाख भी
उधर है शाख डोलती बस एक ताल बांधकर
तू चल समय निकल रहा है गाठ ले तू बांधकर
प्रसन्न आठवले
Comments
Post a Comment