एक कली के फूल बननको देख कवी की कल्पना की उड़ान
एक कवि कल्पना :
कुसुमकली इक बड़े सवेरे खोल रही थी पलके
उसका अब था तय हुवा के बने फूल वो खिलके
उसके पंखों ने था खोला बंध हर पंखुडिका
भोर भी शायद ठहरी थी उसकी कोशिश को देखा
उधर उड़ रहे पक्षी सारे भी ठहरे मिलने को
बड़े सवेरे हवा भी जैसे रुक कर चलती देखो
हर पंखुड़ी खोल रही थी बाहे अपनी धीरे
उनके इस कोशिश को देख हरियाली भी फहरे
हर जगह हो मानो जैसे उसका ही चर्चा सा
अब तो उसकी पंखुड़ियोंको आया जोर जरासा
अलग हुई जब हर पाती और खिलते फूल को देखे
सूरज ने भी बाहर आकर रंग भर दीये जैसे
अब कली इक फूल बन गयी खिलाहुवा रंग पाया
उसकी सुंदरता को तो हर कोई है सहराता
ये तो बात है यारो बस मैं एक फूल की कहता
ऐसा रोज नजारा देखा कवि का मन है बहता
प्रसन्न आठवले
Comments
Post a Comment