आधे अधुरे सपने कुछ आधे अधुरे सपने है इन यादों के मेलेमें रुठे से कुछ अपने है इस भीड में अकेले में अलग हुई है दुनिया अब तो अपने भी पराये सें बिखर गये है तिनके सारे हाथ न आये साये से लहराती थी वादियों में गुंज कभी माहोल में आवाज भी न अब आती है सांस कि अकेले में उदास उदास सी है जिंदगी विरान सी महफिल में निंद भी जैसे सो गयी है आंखो में और दिल में जहां कभी गुर्राते थे वो आज न कोई बात भी दुनिया का दस्तूर है ऐसा सायेका ना साथ भी आ पहुचे मंजिल सामने हाथ है फिर भे खाली से मदहोश कभी जो रहते थे, है अब बिनाबुंद की प्याली से. कवी: प्रसन्न आठवले ११/०८/२०१७ १०:०३